महात्मा गांधी पर 10 लाइनें: जानें उनके जीवन और आदर्श

by Wholesomestory Johnson 53 views

नमस्ते दोस्तों!

आज हम एक ऐसे महान व्यक्तित्व के बारे में जानेंगे जिन्होंने न केवल भारत के इतिहास को बल्कि पूरी दुनिया की सोच को बदल दिया। आपने अक्सर महात्मा गांधी के बारे में सुना होगा और शायद उनके जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को 10 लाइनों में जानने की इच्छा रखते होंगे। 'राष्ट्रपिता' के रूप में सम्मानित, मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसा नाम है जो सत्य, अहिंसा और शांति का पर्याय बन गया है। उनके जीवन का हर पहलू हमें कुछ न कुछ सिखाता है, चाहे वह उनका संघर्ष हो, उनके सिद्धांत हों या उनका अटूट विश्वास।

इस लेख में, हम महात्मा गांधी के जीवन, उनके संघर्षों, उनके सिद्धांतों और उनकी अमूल्य विरासत को 10 मुख्य बिंदुओं के माध्यम से विस्तृत रूप से समझेंगे। हम सिर्फ 10 लाइनें नहीं देंगे, बल्कि हर बिंदु को विस्तार से समझाएंगे ताकि आप उनके योगदान को गहराई से समझ सकें और जान सकें कि कैसे उन्होंने साधारण तरीकों से असाधारण परिवर्तन लाए। हमारा लक्ष्य आपको एक सरल, सटीक और सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करना है, ठीक वैसे ही जैसे आप Brainly या Testbook जैसी शैक्षिक प्लेटफॉर्म पर उम्मीद करते हैं। तो आइए, इस प्रेरणादायक यात्रा पर निकल पड़ते हैं!

सही उत्तर

महात्मा गांधी, जिन्हें 'राष्ट्रपिता' के नाम से जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रमुख नेता थे जिन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों के माध्यम से ब्रिटिश शासन से आजादी दिलाई और विश्व भर में शांति व न्याय के प्रतीक बन गए।

विस्तृत व्याख्या

यहां हम महात्मा गांधी के जीवन और आदर्शों से जुड़ी 10 महत्वपूर्ण बातों को विस्तार से समझेंगे, जो उनके व्यक्तित्व, उनके संघर्षों और उनकी विरासत को उजागर करती हैं:

1. जन्म और प्रारंभिक जीवन

मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर नामक तटीय शहर में हुआ था। यह दिन आज पूरे विश्व में 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में मनाया जाता है, जो गांधी जी के शांति के संदेश का प्रमाण है। उनके पिता, करमचंद उत्तमचंद गांधी, पोरबंदर रियासत के कुशल दीवान (मुख्य मंत्री) थे, और उनकी माता, पुतलीबाई, एक अत्यंत धर्मपरायण महिला थीं। गांधी जी के जीवन पर उनकी माता के धार्मिक और नैतिक मूल्यों का गहरा प्रभाव पड़ा। पुतलीबाई की सादगी, ईमानदारी, और धार्मिक निष्ठा ने मोहनदास के चरित्र की नींव रखी। वे अक्सर उपवास रखती थीं और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेती थीं, जिसका प्रभाव गांधी जी ने अपने बाद के जीवन में भी अपनाया।

गांधी जी का बचपन सामान्य था, जिसमें उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर और राजकोट में प्राप्त की। बचपन से ही वे एक औसत छात्र थे, लेकिन सत्य के प्रति उनकी निष्ठा और ईमानदारी के कई किस्से मिलते हैं। एक बार, स्कूल में एक निरीक्षण के दौरान, शिक्षक ने उन्हें एक शब्द की गलत वर्तनी को सुधारने का संकेत दिया, लेकिन गांधी जी ने इसे अस्वीकार कर दिया, यह दर्शाते हुए कि वे नकल करके सही उत्तर नहीं देना चाहते थे। यह घटना उनकी सत्यनिष्ठा का प्रारंभिक उदाहरण है। उनके परिवार का धार्मिक माहौल, जिसमें वैष्णव धर्म, जैन धर्म और इस्लाम का प्रभाव था, उनके अहिंसा और सर्वधर्म समभाव के विचारों को पोषित करने में सहायक रहा। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न धर्मों के प्रति सम्मान की भावना को बचपन से ही आत्मसात किया।

2. शिक्षा और वकालत

1888 में, युवा मोहनदास कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड गए। यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि यह पहली बार था जब उन्होंने भारतीय समाज से बाहर कदम रखा और पश्चिमी संस्कृति का अनुभव किया। लंदन में रहते हुए, उन्होंने शाकाहार और सादगी जैसे सिद्धांतों को और दृढ़ता से अपनाया। उन्हें लंदन वेजिटेरियन सोसायटी में शामिल होने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने विभिन्न विचारकों से मुलाकात की और अपने विचारों को परिष्कृत किया। इंग्लैंड में रहते हुए, उन्होंने न केवल कानून की पढ़ाई की बल्कि भारतीय संस्कृति और धर्मग्रंथों का भी गहराई से अध्ययन किया, विशेष रूप से भगवद गीता का, जिसने उनके जीवन को बहुत प्रभावित किया।

1891 में कानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद, वे भारत लौटे। भारत में वापस आने के बाद, उन्होंने कुछ समय मुंबई और राजकोट में वकालत करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली। उन्हें सार्वजनिक रूप से बोलने में झिझक होती थी और अदालतों में उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही थी। यह अवधि उनके लिए चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इसी दौरान उन्हें भारतीय समाज और कानून व्यवस्था की गहरी समझ हुई। उनकी यह प्रारंभिक असफलता ही उन्हें एक नए मार्ग की ओर ले गई, जिसके परिणामस्वरूप वे दक्षिण अफ्रीका गए और अपने जीवन के उद्देश्य को खोज पाए। इस दौरान उन्होंने भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का भी बारीकी से अवलोकन किया, जिसने उनके भविष्य के आंदोलनों की नींव रखी।

3. दक्षिण अफ्रीका में अनुभव

1893 में, गांधी जी एक भारतीय व्यापारी, दादा अब्दुल्ला, के कानूनी सलाहकार के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए। यह यात्रा उनके जीवन का एक क्रांतिकारी अध्याय साबित हुई और यहीं से मोहनदास करमचंद गांधी 'महात्मा' बनने की ओर अग्रसर हुए। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने भारतीयों के साथ हो रहे रंगभेद और नस्लीय भेदभाव का सामना किया, जिसने उन्हें अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। पीटरमैरिट्जबर्ग स्टेशन पर ट्रेन के फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट से उन्हें सिर्फ इसलिए उतार दिया गया था क्योंकि वे एक भारतीय थे, जबकि उनके पास वैध टिकट था। यह घटना उनके जीवन का एक टर्निंग पॉइंट बनी, जिसने उन्हें अन्याय के खिलाफ खड़े होने का संकल्प दिलाया।

दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने भारतीयों के अधिकारों के लिए 21 साल तक संघर्ष किया और यहीं उन्होंने अपने सत्याग्रह के सिद्धांत को विकसित किया। उन्होंने नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और 'इंडियन ओपिनियन' नामक अखबार के माध्यम से भारतीय समुदाय को संगठित किया। उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive Resistance) को सक्रिय अहिंसक प्रतिरोध में बदला, जिसे उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया। उनके संघर्षों में रजिस्ट्रेशन एक्ट के खिलाफ अभियान, 'ब्लैक एक्ट' का विरोध, और ट्रांसवाल में भारतीय प्रवासियों पर लगने वाले कर का विरोध शामिल था। इन अनुभवों ने उन्हें एक कुशल संगठक, एक दृढ़ नेता और एक ऐसे सिद्धांतवादी के रूप में तैयार किया जो बिना हिंसा के बड़े से बड़े अन्याय का सामना कर सकता था। दक्षिण अफ्रीका उनके लिए एक प्रयोगशाला साबित हुई जहाँ उन्होंने अपने राजनीतिक और नैतिक दर्शन को परखा और मजबूत किया।

4. भारत वापसी और स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश

जनवरी 1915 में, गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में अपने सफल आंदोलनों के बाद भारत लौटे। भारत लौटने पर उनका भव्य स्वागत किया गया, और वे एक राष्ट्रीय नायक के रूप में पहचाने जाने लगे। गोपाल कृष्ण गोखले, जो उनके राजनीतिक गुरु थे, के मार्गदर्शन में, उन्होंने पहले एक साल तक पूरे देश का भ्रमण किया। गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे भारत की वास्तविक स्थिति को समझे बिना किसी भी राजनीतिक आंदोलन में कूदने से बचें। गांधी जी ने भारत के गांवों, कस्बों और शहरों का दौरा किया, लोगों की समस्याओं को समझा और उनकी दुर्दशा को करीब से देखा। इस यात्रा ने उन्हें भारत की विविधता, उसकी गरीबी और ब्रिटिश शासन के वास्तविक प्रभाव से परिचित कराया।

1917 में, उन्होंने बिहार के चंपारण में किसानों के अधिकारों के लिए चंपारण सत्याग्रह का नेतृत्व किया, जो भारत में उनका पहला सफल सविनय अवज्ञा आंदोलन था। इसके बाद 1918 में गुजरात में खेड़ा सत्याग्रह और अहमदाबाद मिल हड़ताल उनके शुरुआती सफल आंदोलन थे, जिन्होंने उन्हें एक जननेता के रूप में स्थापित किया। इन आंदोलनों में उन्होंने स्थानीय मुद्दों को उठाया और अहिंसक प्रतिरोध की अपनी तकनीक का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया। इन सफलताओं ने उन्हें पूरे देश में पहचान दिलाई और लोगों में यह विश्वास जगाया कि गांधी जी ही भारत को स्वतंत्रता दिला सकते हैं। इन आंदोलनों के माध्यम से, गांधी जी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एक मजबूत और अहिंसक प्रतिरोध का नेतृत्व करने के लिए तैयार हुए।

5. अहिंसा का सिद्धांत (सत्याग्रह)

गांधी जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान और उनके जीवन का आधार उनका अहिंसा और सत्याग्रह का सिद्धांत था। उनके लिए अहिंसा केवल हिंसा का अभाव नहीं था, बल्कि यह एक सक्रिय नैतिक शक्ति थी जिसका उपयोग अन्याय का विरोध करने और विरोधियों के हृदय परिवर्तन के लिए किया जाता था। गांधी जी का मानना था कि सच्ची शक्ति प्रेम और करुणा में निहित है, न कि बल प्रयोग में। अहिंसा एक कायरता नहीं बल्कि साहस का प्रतीक थी, जिसके लिए अपार आत्म-नियंत्रण और नैतिक शक्ति की आवश्यकता होती है।

सत्याग्रह का अर्थ था 'सत्य के लिए आग्रह' या 'सत्य की शक्ति'। इसमें विरोधी को शारीरिक पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं पीड़ा सहकर और आत्म-बलिदान के माध्यम से उसके हृदय परिवर्तन की कोशिश की जाती थी। सत्याग्रह एक नैतिक और आध्यात्मिक हथियार था, जिसका उद्देश्य अन्यायपूर्ण कानूनों या नीतियों का विरोध करना था, लेकिन बिना किसी हिंसा या घृणा के। गांधी जी ने सत्याग्रह को एक ऐसा साधन बताया जिसके द्वारा व्यक्ति अपने नैतिक साहस और सत्यनिष्ठा के बल पर विरोधी को अपनी गलती का एहसास कराता है। इस सिद्धांत ने न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम को आकार दिया बल्कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे विश्व के अन्य महान नेताओं को भी प्रेरणा दी, जिन्होंने अपने-अपने देशों में अन्याय के खिलाफ अहिंसक संघर्षों का नेतृत्व किया। यह सिद्धांत आज भी विश्व शांति और न्याय के लिए एक मार्गदर्शक शक्ति बना हुआ है।

6. प्रमुख आंदोलन (असहयोग, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो)

गांधी जी ने भारत की स्वतंत्रता के लिए कई बड़े और निर्णायक आंदोलन चलाए, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। इन आंदोलनों ने लाखों भारतीयों को एकजुट किया और उन्हें स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर अग्रसर किया।

  • असहयोग आंदोलन (1920-22): प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार के दमनकारी रवैये, जैसे जलियांवाला बाग हत्याकांड और रॉलेट एक्ट, के विरोध में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का मुख्य विचार ब्रिटिश सरकार के साथ किसी भी रूप में सहयोग न करना था। इसमें सरकारी सेवाओं, स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार शामिल था। लोगों ने अपनी सरकारी उपाधियाँ त्याग दीं और खादी अपनाई। यह आंदोलन जनभागीदारी का एक विशाल उदाहरण था, जिसने ब्रिटिश प्रशासन को गंभीर रूप से चुनौती दी। हालांकि, चौरी-चौरा की घटना में हुई हिंसा के बाद गांधी जी ने इसे स्थगित कर दिया।

  • सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930): ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक पर लगाए गए अन्यायपूर्ण कर के विरोध में गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। इसका सबसे प्रसिद्ध पहलू दांडी मार्च था, जिसमें गांधी जी ने 240 मील पैदल चलकर नमक कानून तोड़ा। इस आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश कानूनों को शांतिपूर्ण ढंग से तोड़ना और सरकार पर दबाव बनाना था। लोगों ने विभिन्न सरकारी कानूनों को तोड़ा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया और टैक्स न देने का अभियान चलाया। यह आंदोलन राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया और इसने ब्रिटिश सरकार को भारतीयों की मांगों पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया।

  • भारत छोड़ो आंदोलन (1942): द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब ब्रिटिश सरकार भारत को अपने युद्ध प्रयासों में शामिल कर रही थी, गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया। इस आंदोलन का नारा था 'करो या मरो'। गांधी जी ने ब्रिटिश शासन को तत्काल भारत छोड़ने की मांग की और भारतीय जनता से ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध करने का आग्रह किया। इस आंदोलन में गांधी जी और कई अन्य नेताओं को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन इसने जनता में स्वतंत्रता की आग को और तेज कर दिया। यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम और निर्णायक चरण साबित हुआ, जिसने ब्रिटिश सरकार को यह स्पष्ट संदेश दिया कि उन्हें अब भारत छोड़ना होगा। इन तीनों आंदोलनों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अंततः भारत को आजादी मिली।

7. स्वदेशी और ग्राम स्वराज

गांधी जी ने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर जोर दिया, बल्कि उनका मानना था कि वास्तविक स्वतंत्रता आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता के बिना अधूरी है। इसी दृष्टिकोण के साथ उन्होंने स्वदेशी और ग्राम स्वराज के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया।

स्वदेशी का अर्थ था अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करना और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना। यह केवल एक आर्थिक नीति नहीं थी, बल्कि एक नैतिक और राष्ट्रवादी अवधारणा थी। गांधी जी का मानना था कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने से भारतीय उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा, जिससे गांवों में रोजगार के अवसर पैदा होंगे और देश आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनेगा। उन्होंने चरखे को स्वदेशी का प्रतीक बनाया। चरखा केवल सूत कातने का एक साधन नहीं था, बल्कि यह आत्म-निर्भरता, सादगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का प्रतीक था। खादी को अपनाकर लोग न केवल भारतीय उद्योग को समर्थन दे रहे थे, बल्कि वे ब्रिटिश मिलों पर अपनी निर्भरता भी कम कर रहे थे।

ग्राम स्वराज का अर्थ था गांवों को आत्मनिर्भर बनाना और स्थानीय स्तर पर स्वशासन की स्थापना करना। गांधी जी का सपना ऐसे भारत का था जहाँ हर गांव अपनी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो, और जहाँ स्थानीय लोग अपने निर्णय स्वयं ले सकें। उन्होंने एक विकेन्द्रीकृत शासन प्रणाली की वकालत की जिसमें हर गांव एक छोटी गणराज्य की तरह काम करे, जो अपनी शिक्षा, स्वच्छता, भोजन और सुरक्षा के लिए स्वयं जिम्मेदार हो। गांधी जी का मानना था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है, और जब तक गांव मजबूत और आत्मनिर्भर नहीं होंगे, तब तक देश पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हो सकता। इन सिद्धांतों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को एक आर्थिक और सामाजिक दिशा दी, बल्कि आज भी ग्रामीण विकास और आत्मनिर्भरता के मॉडलों को प्रेरित करते हैं।

8. सामाजिक सुधार और हरिजनों का उत्थान

गांधी जी केवल एक राजनीतिक नेता नहीं थे, बल्कि वे एक महान समाज सुधारक भी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न बुराइयों, विशेषकर छुआछूत और जातिगत भेदभाव, के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया। वे मानते थे कि जब तक समाज में ऊंच-नीच का भेद बना रहेगा, तब तक भारत वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता। उन्होंने दलितों को 'हरिजन' (ईश्वर के बच्चे) कहकर संबोधित किया और उनके अधिकारों तथा सम्मान के लिए अथक आंदोलन चलाए। उन्होंने स्वयं हरिजन बस्तियों में जाकर उनके साथ रहना, उनके शौचालय साफ करना जैसे कार्य किए ताकि समाज को यह संदेश दिया जा सके कि कोई भी कार्य या व्यक्ति छोटा नहीं होता।

उन्होंने अस्पृश्यता को हिंदू धर्म पर एक धब्बा बताया और इसके उन्मूलन के लिए 'हरिजन सेवक संघ' की स्थापना की। उन्होंने दलितों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने, कुओं से पानी भरने और शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारों के लिए अभियान चलाए। पूना पैक्ट (1932) उनके इसी संघर्ष का एक महत्वपूर्ण परिणाम था, जिसके तहत दलितों के लिए विधानमंडलों में आरक्षित सीटें सुनिश्चित की गईं। गांधी जी ने केवल जातिवाद ही नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वच्छता और लैंगिक समानता पर भी जोर दिया। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और समाज में उनकी भागीदारी का समर्थन किया और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। उनके सामाजिक सुधार के प्रयासों ने भारतीय समाज में एक नई चेतना जगाई और समानता तथा न्याय की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।

9. दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह

1930 का दांडी मार्च या नमक सत्याग्रह गांधी जी के सबसे प्रतिष्ठित और प्रतीकात्मक आंदोलनों में से एक था। ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक के उत्पादन और बिक्री पर एकाधिकार स्थापित कर दिया गया था और उस पर भारी कर लगाया गया था। यह कानून सभी भारतीयों को प्रभावित करता था, खासकर गरीबों को, क्योंकि नमक एक मूलभूत आवश्यकता थी। गांधी जी ने इस अन्यायपूर्ण नमक कानून को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपने सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में चुना।

12 मार्च 1930 को, गांधी जी ने अपने 78 विश्वसनीय अनुयायियों के साथ गुजरात के साबरमती आश्रम से दांडी नामक तटीय गांव तक 240 मील (लगभग 386 किलोमीटर) की पैदल यात्रा शुरू की। यह यात्रा 24 दिनों तक चली, और रास्ते में हजारों लोग उनसे जुड़ते चले गए। 6 अप्रैल 1930 को, दांडी पहुंचकर, गांधी जी ने समुद्र तट पर नमक बनाकर ब्रिटिश नमक कानून को तोड़ा। इस एक छोटी सी प्रतीकात्मक कार्रवाई ने पूरे देश में एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया। लोगों ने जगह-जगह स्वयं नमक बनाना शुरू कर दिया, ब्रिटिश नमक डिपो पर धरना दिया और अन्यायपूर्ण कानूनों को तोड़ा। इस घटना ने पूरे देश को जगा दिया और सविनय अवज्ञा आंदोलन को एक विशाल जन-आंदोलन में बदल दिया। दांडी मार्च ने यह दिखाया कि अहिंसक प्रतिरोध कितनी शक्ति रख सकता है और इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक निर्णायक मोड़ ला दिया। यह आज भी अन्याय के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रतिरोध का एक शक्तिशाली उदाहरण है।

10. निधन और विश्व पर प्रभाव

30 जनवरी 1948 को, जब भारत अपनी स्वतंत्रता का पहला वर्षगांठ मना रहा था, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दिल्ली में नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई। यह घटना पूरे विश्व के लिए एक गहरा सदमा थी। गांधी जी के निधन से न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया शोक में डूब गई। उनके अंतिम शब्द 'हे राम' थे, जो उनके आध्यात्मिक विश्वास को दर्शाते हैं। उनकी मृत्यु ने एक युग का अंत कर दिया, लेकिन उनके विचार और सिद्धांत अमर हो गए।

गांधी जी के विचार और सिद्धांत, विशेषकर अहिंसा और सत्याग्रह, आज भी दुनियाभर के नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रेरित करते हैं। उन्होंने दिखाया कि बिना हिंसा के भी बड़े से बड़े अन्याय और दमनकारी शक्तियों का सामना किया जा सकता है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए अपने अहिंसक संघर्ष में गांधी जी के सिद्धांतों से प्रेरणा ली। दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ लड़ाई में गांधी जी के मार्ग का अनुसरण किया। विश्व शांति, मानवाधिकारों, पर्यावरण संरक्षण, और सामाजिक न्याय के आंदोलनों में गांधी जी की शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। संयुक्त राष्ट्र ने उनके जन्मदिन, 2 अक्टूबर, को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' घोषित करके उनके वैश्विक प्रभाव को स्वीकार किया है। गांधी जी एक व्यक्ति से कहीं अधिक थे; वे एक विचार, एक आंदोलन और एक जीवनशैली थे जो आज भी मानवता को प्रेरित करती है। उनका बलिदान और उनकी विरासत हमें यह याद दिलाती है कि सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही सच्ची और स्थायी शांति प्राप्त की जा सकती है।

मुख्य बातें

यहां महात्मा गांधी के जीवन और आदर्शों से जुड़ी प्रमुख बातों का संक्षिप्त सारांश दिया गया है:

  • जन्म और प्रारंभिक जीवन: मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था, जहां उनकी माता पुतलीबाई के धार्मिक मूल्यों ने उनके व्यक्तित्व की नींव रखी।
  • शिक्षा और वकालत: 1888 में कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए और 1891 में भारत लौटने के बाद शुरुआती कानूनी करियर में संघर्ष किया।
  • दक्षिण अफ्रीका में अनुभव: 1893 में दक्षिण अफ्रीका गए, जहां रंगभेद का सामना किया और 21 साल तक भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए सत्याग्रह का सिद्धांत विकसित किया।
  • भारत वापसी और स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश: जनवरी 1915 में भारत लौटे और गोपाल कृष्ण गोखले के मार्गदर्शन में चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद में सफल आंदोलन चलाकर एक जननेता के रूप में उभरे।
  • अहिंसा का सिद्धांत (सत्याग्रह): उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान अहिंसा और सत्याग्रह था, जिसमें स्वयं पीड़ा सहकर अन्याय का विरोध करना और विरोधी के हृदय परिवर्तन की कोशिश करना शामिल था।
  • प्रमुख आंदोलन: भारत की स्वतंत्रता के लिए असहयोग (1920-22), सविनय अवज्ञा (1930) और भारत छोड़ो (1942) जैसे बड़े आंदोलनों का नेतृत्व किया।
  • स्वदेशी और ग्राम स्वराज: आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता के लिए स्वदेशी (अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग) और ग्राम स्वराज (गांवों को आत्मनिर्भर बनाना) के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया, चरखे को आत्म-निर्भरता का प्रतीक बनाया।
  • सामाजिक सुधार और हरिजनों का उत्थान: छुआछूत और जातिगत भेदभाव के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया, दलितों को 'हरिजन' कहकर संबोधित किया और उनके अधिकारों के लिए आंदोलन चलाए, जैसे पूना पैक्ट और अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान।
  • दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह: 1930 में, उन्होंने ब्रिटिश नमक कानून के खिलाफ ऐतिहासिक दांडी मार्च का नेतृत्व किया, जिसने सविनय अवज्ञा आंदोलन को एक विशाल जन-आंदोलन में बदल दिया।
  • निधन और विश्व पर प्रभाव: 30 जनवरी 1948 को उनकी हत्या कर दी गई, लेकिन उनके अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत आज भी मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं को प्रेरित करते हैं और विश्व शांति व न्याय के लिए प्रासंगिक हैं।